ब्लॉग – India Times Group https://indiatimesgroup.in News App of India Fri, 07 Jun 2024 04:37:02 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.6.1 https://indiatimesgroup.in/wp-content/uploads/2024/02/cropped-India-Times-Group-Logo-512x512-1-32x32.png ब्लॉग – India Times Group https://indiatimesgroup.in 32 32 प्रदूषण से बढ़ती बीमारियों से परेशान लोग https://indiatimesgroup.in/people-are-worried-about-increasing-diseases-due-to-pollution/ https://indiatimesgroup.in/people-are-worried-about-increasing-diseases-due-to-pollution/#respond Fri, 07 Jun 2024 04:37:02 +0000 https://indiatimesgroup.in/?p=4633

 -अखिलेश आर्येंदु
दिल्ली में पर्यावरण प्रदूषण की समस्या कोई नई बात नहीं है। साल के बारहों महीने एनसीआर वालों को प्रदूषण के सबसे खतरनाक या अति खतरनाक स्तर के असर से जूझना पड़ता है। इसे देखते हुए सरकार ने वायु गुणवत्ता सुधारने के लिए कई कदम उठाए। जिसके तहत दिल्ली में बाहर के वाहनों के प्रवेश को रोकने के लिए पूर्वी व पश्चिमी एक्सप्रेस- वे का निर्माण, पटाखे की बिक्री पर प्रतिबंध, पंजाब व हरियाणा के किसानों को 1400 करोड़ रुपए उपलब्ध कराना, एनसीआर को 2600 उद्योगों को पाइप्ड नेचुरल गैस  मुहैया कराना, बदरपुर बिजली संयंत्र को बंद करना, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में 2.800 ईंट भट्टों में जिंग- जैग मुहैया कराने के साथ और निर्माण और विध्वंस अपशिष्ट प्रबंधन नियम की शुरूआत जैसे कई ठोस कदम शामिल हैं। बावजूद एनसीआर में वायु प्रदूषण की समस्या विकट रुप में बनी रहती है। वायु प्रदूषण की यह समस्या कई और समस्याओं को पैदा कर रही है जिनमें लोगों की उम्र में कमी, नई-नई बीमारियों से असमय में मृत्यु और प्राकृतिक संसाधनों का प्रदूषित होते रहना, प्रसिद्ध पर्याटक स्थलों का प्रदूषित होना जैसी समस्याएं शामिल हैं।

दिल्ली- एनसीआर में प्रदूषण का सबसे भयंकर असर लोगों का नई- नई बीमारियों से हलाकान होना है। दुनिया के सबसे प्रदूषित शहरों में दिल्ली कभी पहले तो कभी दूसरे स्थान पर रहती है। कई बार तो क्यूआई 500 के आंकड़े को पार कर जाता है। जाहिर तौर पर इसका असर सेहत पर जबरदस्त तरीके से पड़ता ही है। 500 क्यूआई का पार जाना विश्व स्वास्थ्य संगठन के निर्धारित सीमा से 100 गुना ज्यादा है। दिल्ली- एनसीआर में 3.3 करोड़ लोग रहते हैं। यानी दुनिया के कई बड़े देशों की आबादी के लगभग। सोचा जा सकता है।

दिल्ली- एनसीआर की इतना बड़ी आबादी हर वक्त जहरीली गैसों को श्वास के रूप में लेना जरूरी है। इस इलाके में रहना है तो इस जहर को पीना ही पड़ेगा, दूसरा कोई विकल्प नही है। शिकागो विश्वविद्यालय के एनर्जी पॉलिसी इंस्टीट्यूट के मुताबिक दिल्ली में हवा का अति खतरनाक बने रहने की वजह से यहां रहने वाले लोगों की जिंदगी करीब 11.9 वर्ष कम हो गई है। पिछले कुछ वर्षों में एनसीआर की हवा के जहरीले होने की वजह से सांस संबंधी बीमारियों में तेजी से इजाफा हुआ है। दिल, फेफड़े, आंत, आंख, हड्डी और यकृत संबंधी बीमारियां बहुत तेजी से बढ़ी हैं। शारीरिक के साथ मानसिक सेहत पर भी जबरदस्त असर पड़ा है। शोध के मुताबिक पिछले कुछ सालों में दिल्ली- एनसीआर में रहने वाले बच्चों में याद रखने की क्षमता लगातार घट रही है। साथ ही गणित के सवाल करने में भी बच्चा पहले जैसे नहीं हैं। जाहिर तौर पर बढ़ते प्रदूषण से आने वाले वक्त में और कई नई समस्याएं पैदा हो सकती हैं। यदि प्रदूषण से बच्चों की याददाश्त पर असर पड़ रहा है तो देश में जहां भी प्रदूषण की समस्या बढ़ेगी वहां इस तरह की समस्याओं का बढ़ना लाजमी है।

यह की महज हवा जहरीली नहीं हुई है बल्कि जल, ध्वनि, मिट्टी और प्रकाश प्रदूषण की भी समस्या लगातार बढ़ रही है। एक अमरीकी रिसर्च के मुताबिक भारत के बड़े शहरों में मिट्टी, जल और ध्वनि प्रदूषण भी तेजी से बढ़ रहा है। दिल्ली में यमुना, कानपुर, वाराणसी व प्रयागराज में गंगा और गुजरात व मध्य प्रदेश में नर्मदा का पानी प्रदूषित हो गया है। दिल्ली में यमुना का पानी छूने लायक नहीं रह गया है। इससे आवारा जानवरों और पक्षियों में तमाम तरह की बीमारियां बढ़ गई हैं। आए दिन मवेशी और पक्षी मौत के शिकार होते दिखते हैं।
डाउन टू अर्थ ने अपनी एक रिपोर्ट साल 2018 से लेकर साल 2023 के अक्टूबर महीने के बीच 25 रिसर्च बताते हैं कि भारत के बच्चों पर वायु प्रदूषण का असर महज उत्तर भारत तक सीमित नहीं है यानी देश के तमाम बड़े शहर इसके चपेट में हैं। जिस वजह से प्रेगनेंट लेडी के बच्चों के जन्म के वक्त उनके वजन में कमी, वक्त से पहले प्रसव और मरे हुए बच्चों के जन्म जैसी तमाम दिक्कतें देखने को मिलती हैं।

यूनाइटेड नेशन की रिपोर्ट वताती है कि भारत में एनीमिया से ग्रस्त बच्चे करोड़ों में हैं। जिस तरह से एनसीआर में वाहनों की तादाद लगातार बढ़ रही है, धूल की समस्या बढ़ रही है इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि आने वाला वक्त सेहत के मद्देनजर बहुत खराब होगा।  यदि देश को पांचवी आर्थिक महाशक्ति बनना है तो प्रदूषण की समस्या और इससे होने वाली दुश्वारियों को भी समझना होगा। एनसीआर में जिस तरह से प्रदूषण भयावह रूप अख्तियार कर रहा है आने वाले वक्त में बहुत बड़ी त्रासदी के रूप में सामने आ सकता है। एनसीआर आने वाले वक्त में एक जहरीली गैस चैंबर के रूप में होगी, जहां लोगों का रहना नामुमकिन होगा।

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लोकसभा चुनाव में जीत के बावजूद भाजपा के लिए झटका https://indiatimesgroup.in/despite-victory-in-lok-sabha-elections-setback-for-bjp/ https://indiatimesgroup.in/despite-victory-in-lok-sabha-elections-setback-for-bjp/#respond Thu, 06 Jun 2024 04:34:12 +0000 https://indiatimesgroup.in/?p=4602

उमेश चतुर्वेदी
लोकसभा चुनाव नतीजों में भाजपा भले ही सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी हो, लेकिन यह उसके लिए बड़ा झटका ही माना जायेगा।  साल 2014 में जब वह 283 सीटों के साथ अपने दम पर बहुमत हासिल कर सत्ता में आयी थी, तब कहा गया था कि मतदाता प्रबुद्ध हो गया है और उसे अस्थिर सरकारें मंजूर नहीं हैं।  पिछले आम चुनाव ने इसी धारणा को आगे बढ़ाया और ब्रांड मोदी स्थापित हो गया।  पर 2024 में स्थितियां बदली हैं।

ये पंक्तियां लिखने के वक्त तक भाजपा अपने दम पर ढाई सौ का आंकड़ा भी पार करती नहीं दिख रही है।  भाजपा को सबसे ज्यादा उम्मीद जिस उत्तर प्रदेश से रही है, वहां वह चालीस से भी नीचे जाती दिख रही है।  बिहार में भी वह सबसे बड़ा दल होती थी, लेकिन इस बार जद (यू) आगे निकल गया है।  पश्चिम बंगाल में उसे बड़ी जीत की उम्मीद थी, लेकिन वैसा नहीं हुआ, उलटे सीटें भी घट गयीं।  राजस्थान में भी ऐसी ही स्थिति है।  उसे हरियाणा में भी झटका लगा है।  लेकिन प्रज्ज्वल रेवन्ना कांड के बाद जिस कर्नाटक से उसे सबसे ज्यादा झटके की उम्मीद थी, वहां से उसे उतना नुकसान नहीं हुआ है।  भाजपा भले ही तमिलनाडु से बहुत आशा कर रही थी, लेकिन वहां भी उसके सहयोगी दल को महज एक सीट पर ही जीत मिलती दिख रही है।  पार्टी को महाराष्ट्र में भी बड़ा नुकसान हुआ है।  कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि भाजपा को उत्तर प्रदेश, राजस्थान, पश्चिम बंगाल, बिहार और हरियाणा से बड़ा झटका लगा है।  सबसे ज्यादा समर्थन उसे मध्य प्रदेश से मिला है और गुजरात में भी उसका गढ़ बचा हुआ है।  असम, अरुणाचल प्रदेश, उत्तराखंड और हिमाचल में भी भारतीय जनता पार्टी का जादू कायम है।

फौरी तौर पर देखें, तो उत्तर प्रदेश में भाजपा के कमजोर होने का सबसे बड़ा कारण युवाओं का गुस्सा माना जा रहा है।  राज्य में बार-बार परीक्षाओं के पेपर आउट होते रहे।  इस वजह से युवाओं की नौकरियां लगातार दूर जाती रहीं।  अग्निवीर योजना को लेकर विपक्षी दलों, विशेषकर कांग्रेस नेता राहुल गांधी और सपा नेता अखिलेश यादव, ने जिस तरह मुद्दा बनाया, उसने युवाओं में भाजपा के खिलाफ गुस्सा भर दिया।  राम मंदिर निर्माण के बाद समूचा देश जिस तरह राममय हुआ था, उससे भाजपा को उम्मीद थी कि पार्टी को रामभक्तों का बहुत साथ मिलेगा।  पर उत्तर प्रदेश में ही राम की लहर नहीं चल पायी।  राज्य के मौजूदा हालात के चलते 1999 का आम चुनाव याद आ रहा है।  तब उत्तराखंड भी उत्तर प्रदेश का हिस्सा था और सीटों की कुल संख्या 85 थी।  साल 1998 के चुनाव में भाजपा को 52 सीटें मिली थीं, लेकिन बाद में कल्याण सिंह ने बागी रुख अपना लिया, तो अगले ही साल हुए चुनाव में उसकी 23 सीटें घट गयीं।  कुछ ऐसी ही स्थिति इस बार दिख रही है।  पार्टी अपना आकलन तो करेगी, लेकिन मोटे तौर पर माना जा रहा है कि राज्य में भाजपा को सबसे ज्यादा नुकसान युवाओं के गुस्से, राज्य सरकार के स्थानीय स्तर पर भ्रष्टाचार न रोक पाने और गलत उम्मीदवार देने की वजह से हुआ।  मसलन, बलिया से नीरज शेखर की उम्मीदवारी पर पार्टी के ही लोगों को सबसे ज्यादा एतराज रहा।  खुद प्रधानमंत्री मोदी भी डाक मतपत्रों में छह हजार से ज्यादा वोटों से पीछे रहे।  इसका मतलब साफ है कि लोगों के गुस्से को भांपने में पार्टी नाकाम रही।

बिहार के बारे में माना जा रहा था कि नीतीश को नुकसान होगा, पर वे अपनी ताकत बचाये रखने में कामयाब हुए हैं।  राज्य में अब जनता दल (यू) सबसे बड़ा संसदीय दल है।  तो क्या यह मान लिया जाए कि 2020 के विधानसभा चुनाव में कमजोर किये जाने की कथित कोशिश को उन्होंने पलट दिया है! भाजपा को महाराष्ट्र में शायद अजीत पवार को साथ लाना उसके वोटरों को पसंद नहीं आया।  भाजपा ही उन्हें राज्य की सिंचाई घोटाले का आरोपी मानती रही और उन्हें ही उपमुख्यमंत्री बनाकर ले आयी।  जब कोई विपक्षी व्यक्ति पार्टी या गठबंधन में लाया जाता है, तो सबसे ज्यादा जमीनी कार्यकर्ता को परेशानी होती है।  वह पसोपेश में पड़ जाता है कि कल तक वह अपनी पार्टी लाइन के लिहाज से जिसका विरोध करता रहा, उसका अब कैसे समर्थन करेगा।  महाराष्ट्र का कार्यकर्ता इसीलिए निराश रहा, जिसका असर नतीजों पर दिख रहा है।  हरियाणा के प्रभुत्वशाली जाट वोटरों को सबसे ज्यादा गुस्सा अग्निवीर योजना और शासन में उनकी घटती भागीदारी को लेकर रहा।  इसकी वजह से अधिसंख्य मतदाता पार्टी से नाराज हुआ और नतीजा सामने है।  राजस्थान में भाजपा का कार्यकर्ता ही मुख्यमंत्री भजनलाल को स्वीकार नहीं कर पा रहा है।  दिग्गज नेता वसुंधरा को किनारे लगाये जाने ने भी भाजपा की अंदरूनी राजनीति पर असर डाला।  इसका नतीजा है कि पार्टी राज्य में अपेक्षित प्रदर्शन नहीं कर पायी।  पश्चिम बंगाल में ममता अपने किला बचाने में सफल रहीं।  ओडिशा में भाजपा का जबरदस्त प्रदर्शन रहा, जहां राज्य सरकार के साथ ही संसद की ज्यादातर सीटों पर वह काबिज हो चुकी है।

इस चुनाव ने यह भी संदेश दिया है कि गठबंधन की राजनीति खत्म नहीं हुई।  दो बार अपने दम पर बहुमत हासिल करने के चलते मोदी-शाह की जोड़ी लगातार अपने एजेंडे को लागू करती रही, पर अब गठबंधन की सरकार होगी, इसलिए अब इस जोड़ी को पहले की तरह काम करना आसान नहीं होगा।  एक धारणा यह भी बन गयी थी कि जिस संगठन के चलते भाजपा की पहचान थी, वह धीरे-धीरे किनारे होता चला गया।  लेकिन बहुमत न हासिल होने की स्थिति में अब संगठन की अहमियत बढ़ेगी।  एक संदेश यह भी है कि संगठन को जमीनी लोगों पर भरोसा करना होगा।  भाजपा के लिए राहत की बात यह है कि तीसरी बार वह सत्ता पर काबिज होगी।  उसने उन राज्यों में भी अपनी उपस्थिति बनाने में कामयाबी हासिल की है, जहां वह नहीं थी।

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खतरनाक है खेतों से पेड़ों का उजड़ना https://indiatimesgroup.in/deforestation-of-trees-from-fields-is-dangerous/ https://indiatimesgroup.in/deforestation-of-trees-from-fields-is-dangerous/#respond Tue, 04 Jun 2024 04:28:01 +0000 https://indiatimesgroup.in/?p=4538

पंकज चतुर्वेदी
न तो अब खेतों में कोयल की कूक सुनाई देती है और न ही सावन के झूले पड़ते हैं. यदि फसल को किसी आपदा का ग्रहण लग जाए, तो अतिरिक्त आय का जरिया होने वाले फल भी गायब हैं. अंतरराष्ट्रीय शोध पत्रिका ‘नेचर सस्टैनबिलिटी’ में हाल में प्रकाशित आलेख बताता है कि भारत में खेतों में पेड़ लगाने की परंपरा समाप्त हो रही है. कृषि-वानिकी का मेलजोल कभी भारत के किसानों की ताकत था. कई पर्व-त्योहार, लोकाचार, गीत-संगीत खेतों में खड़े पेड़ों के इर्द गिर्द रहे हैं. मार्टिन ब्रांट , दिमित्री गोमिंस्की, फ्लोरियन रेनर, अंकित करिरिया , वेंकन्ना बाबू गुथुला, फिलिप सियाइस , जियाओये टोंग , वेनमिन झांग , धनपाल गोविंदराजुलु , डैनियल ऑर्टिज-गोंजालो और रासमस फेंशोल्टन के बड़े दल ने भारत के विभिन्न हिस्सों में जाकर पाया कि अब खेत किनारे छाया मिलना मुश्किल है।

इसके कई विषम परिणाम खेत झेल रहा है. जब बढ़ता तापमान गंभीर समस्या के रूप में सामने है और सभी जानते हैं कि धरती पर अधिक से अधिक हरियाली की छतरी ही इससे बचाव का जरिया है, ऐसे में यह शोध गंभीर चेतावनी है कि बीते पांच वर्षों में हमारे खेतों से 53 लाख फलदार व छायादार पेड़ गायब हो गये हैं. इनमें नीम, जामुन, महुआ और कटहल जैसे पेड़ प्रमुख हैं. इन शोधकर्ताओं ने भारत के खेतों में मौजूद 60 करोड़ पेड़ों का नक्शा तैयार किया और लगातार दस साल उनकी निगरानी की. कोपेनहेगन विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं के अध्ययन के अनुसार, देश में प्रति हेक्टेयर पेड़ों की औसत संख्या 0.6 दर्ज की गयी. इनका सबसे ज्यादा घनत्व उत्तर-पश्चिमी भारत में राजस्थान और दक्षिण-मध्य क्षेत्र में छत्तीसगढ़ में दर्ज किया गया है।

यहां पेड़ों की मौजूदगी प्रति हेक्टेयर 22 तक दर्ज की गयी. रिपोर्ट बताती है कि खेतों में सबसे अधिक पेड़ उजाड़ना में तेलंगाना और महाराष्ट्र अव्वल रहे हैं. साल 2010-11 में दर्ज किये गये पेड़ों में से करीब 11 फीसदी बड़े छायादार पेड़ 2018 तक गायब हो चुके थे. बहुत जगहों पर तो खेतों में मौजूद आधे पेड़ गायब हो चुके हैं. यह भी पता चला है कि 2018 से 2022 के बीच करीब 53 लाख पेड़ खेतों से अदृश्य थे, यानी इस दौरान हर किलोमीटर क्षेत्र से औसतन 2.7 पेड़ नदारद मिले. वहीं कुछ क्षेत्रों में तो हर किलोमीटर क्षेत्र से 50 तक पेड़ गायब हो चुके हैं. यह विचार करना होगा कि आखिर किसान ने अपने खेतों से पेड़ों को उजाड़ा क्यों? किसान भलीभांति यह जानता है कि खेत पर छायादार पेड़ होने का अर्थ है पानी संचयन, पत्ते और पंछियों की बीट से निशुल्क कीमती खाद, मिट्टी के मजबूत पकड़ और सबसे बड़ी बात- खेत में हर समय किसी बड़े-बूढ़े के बने रहने का एहसास. इन पेड़ों पर बसेरा करने वाले पक्षी कीट-पतंगों से फसलों की रक्षा करते थे. फसलों को नुकसान करने वाले कीट सबसे पहले मेड़ के पेड़ पर ही बैठते हैं।

उन पेड़ों पर दवाओं को छिड़काव कर दिया जाए, तो फसलों पर छिड़काव करने से बचत हो सकती है. जलावन, फल-फूल से अतिरिक्त आय तो है ही. फिर भी नीम, महुआ, जामुन, कटहल, खेजड़ी (शमी), बबूल, शीशम, करोई, नारियल आदि जैसे बहुउद्देशीय पेड़ों का काटा जाना, जिनका मुकुट 67 वर्ग मीटर या उससे अधिक था, किसान की किसी बड़ी मजबूरी की तरफ इशारा करता है. यह भी है कि खेती का रकबा तेजी से कम होता जा रहा है. एक तो जमीन का बंटवारा हुआ, फिर लोगों ने व्यावसायिक इस्तेमाल के लिए खेतों को बेचा. साल 1970-71 तक देश के आधे किसान सीमांत थे, यानी उनके पास एक हेक्टेयर या उससे कम जमीन थी. साल 2015-16 आते-आते सीमांत किसान बढ़कर 68 प्रतिशत हो गये हैं. अनुमान है कि आज इनकी संख्या 75 फीसदी है।

सरकारी आंकड़ा कहता है कि सीमांत किसानों की औसत खेती 0.4 हेक्टेयर से घटकर 0.38 हेक्टेयर रह गयी है. ऐसा ही छोटे, अर्ध मध्यम और मझोले किसान के साथ हुआ. कम जोत का सीधा असर किसानों की आय पर पड़ा है. अब वह जमीन के छोटे से टुकड़े पर अधिक कमाई चाहता है, तो उसने पहले खेत की चौड़ी मेढ़ को ही तोड़ डाला. इसके चलते वहां लगे पेड़ कटे. उसे लगा कि पेड़ के कारण हल चलाने लायक भूमि और सिकुड़ रही है, तो उसने पेड़ पर कुल्हाड़ी चला दी. इस लकड़ी से उसे तात्कालिक कुछ पैसा भी मिल गया. इस तरह घटती जोत का सीधा असर खेत में खड़े पेड़ों पर पड़ा।

सरकार खेतों में पेड़ लगाने की योजना, सब्सिडी के पोस्टर छापती रही और किसान अपने कम होते रकबे को थोड़ा सा बढ़ाने की फिराक में धरती के शृंगार पेड़ों को उजाड़ता रहा. बड़े स्तर पर धान बोने के चस्के ने भी बड़े पेड़ों को नुकसान पहुंचाया. साथ ही, खेतों में मशीनों के बढ़ते इस्तेमाल ने भी पेड़ों की बलि ली. कई बार भारी मशीनें खेत की पतली पगडंडी से लाने में पेड़ आड़े आते थे, तो तात्कालिक लाभ के लिए उन्हें काट दिया गया. खेत तो कम होंगे ही, लेकिन पेड़ों का कम होना मानवीय अस्तित्व पर बड़े संकट का आमंत्रण है. आज समय की मांग है कि खेतों के आसपास सामुदायिक वानिकी को विकसित किया जाए, जिससे जमीन की उर्वरा, धरती की कोख का पानी और हरियाली का साया बना रहे।

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ईवीएम किसकी सरकार बनाएगी https://indiatimesgroup.in/whose-government-will-evm-form/ https://indiatimesgroup.in/whose-government-will-evm-form/#respond Mon, 03 Jun 2024 04:31:48 +0000 https://indiatimesgroup.in/?p=4499

रजनीश कपूर
वर्ष 2024 के लोक सभा चुनाव अपने अंतिम चरण तक पहुंच गए हैं। आने वाले दिनों में सभी को चुनावी एग्जिट पोल और 4 जून का बेसब्री से इंतजार रहेगा। सभी यह देखना चाहेंगे कि विवादों में घिरी ‘ईवीएम’ किसकी सरकार बनाएगी? हर राजनैतिक दल बड़े-बड़े दावे कर रहा है कि उसका दल या उसके समर्थन वाला समूह सरकार बनाने जा रहा है। ऐसे में यह भी देखना जरूरी है कि केंद्रीय चुनाव आयोग जिसकी कार्यशैली पर कई सवाल उठे, वह इस चुनाव को कितनी पारदर्शिता से संपूर्ण करेगा? देश का आम चुनाव हमेशा से ही एक पर्व की तरह मनाया जाता है। इसमें हर राजनैतिक दल अपने अपने वोटरों के पास अगले पांच साल के लिए उनके मत की अपेक्षा में उन्हें बड़े-बड़े वादे देकर लुभाने की कोशिश करते हैं, परंतु देश की जनता भी यह जान चुकी है कि दल चाहे कोई भी हो, राजनैतिक वादे सभी दल ऐसे करते हैं कि मानो जनता उनके लिए पूजनीय है और ये नेता उनके लिए कुछ भी करने को तैयार हैं, परंतु क्या वास्तव में ऐसा होता है कि चुनावी वादे पूरे किए जाते हैं?

चुनाव का आयोजन करने वाली सर्वोच्च सांविधानिक संस्था केंद्रीय चुनाव आयोग इन चुनावों को कितनी पारदर्शिता से कराती है इसकी बात बीते कई महीनों से सभी कर रहे हैं। चुनाव आयोग की प्राथमिकता यह होनी चाहिए कि हर दल को पूरा मौका दिया जाए और निर्णय देश की जनता के हाथों में छोड़ दिया जाए। बीते कुछ महीनों में चुनाव आयोग पर पहले ईवीएम को लेकर और फिर वीवीपैट को लेकर काफी विवाद रहा। हर विपक्षी दल ने एक सुर में यह आवाज लगाई कि देश से ईवीएम को हटा कर बैलट पेपर पर ही चुनाव कराया जाए, परंतु देश की शीर्ष अदालत ने चुनाव आयोग को निर्देश देते हुए अधिक सावधानी बरतने को कहा और ईवीएम को जारी रखा। इन विवादों के बाद चुनाव् की मतगणना को लेकर फॉर्म 17सी पर एक नई बहस उठी जो देश की शीर्ष अदालत जा पहुंची। दरअसल, फॉर्म 17सी वह फॉर्म होता है जिसमें चुनाव संचालन नियम, 1961 के तहत देशभर के प्रत्येक मतदान केंद्र पर डाले गए वोटों का रिकार्ड होता है। फॉर्म 17सी में मतदान केंद्र के कोड नंबर और नाम, मतदाताओं की संख्या। उन मतदाताओं की संख्या जिन्होंने मतदान न करने का निर्णय लिया। उन मतदाताओं की संख्या जिन्हें मतदान करने की अनुमति नहीं मिली। दर्ज किए गए वोटों की संख्या।

खारिज किए गए वोटों की संख्या। वोटों के खारिज करने के कारण। स्वीकार किए गए वोटों की संख्या। डाक मतपत्रों का डाटा भी शामिल होता है। इस जानकारी को मतदान अधिकारियों द्वारा भरा जाता है और प्रत्येक बूथ के पीठासीन अधिकारी द्वारा जांचा भी जाता है। मतगणना के दिन, गिनती से पहले, फॉर्म 17सी के दूसरे भाग में प्रत्येक बूथ से गिने गए कुल वोट व डाले गए कुल वोटों की समानता को जांचा जाता है। यह व्यवस्था किसी भी पार्टी द्वारा वोटों में हेरफेर से बचने के लिए बनाई गई है। यह डाटा मतगणना केंद्र के पर्यवेक्षक द्वारा दर्ज किया जाता है। प्रत्येक उम्मीदवार (या उनके प्रतिनिधि) को फॉर्म पर हस्ताक्षर करना होता है, जिसे रिटर्निग अधिकारी द्वारा जांचा जाता है। इसके बाद ही मतों की गिनती शुरू होती है। गौरतलब है कि मतदान डाटा का उपयोग चुनाव परिणाम को कानूनी रूप से चुनौती देने के लिए किया जा सकता है। एक ओर जहां चुनाव में ईवीएम से छेड़छाड़ पर सवाल उठाया गया है वहीं फॉर्म 17सी से मतदान में हुई गड़बड़ी (यदि हुई हो तो) का पता चल सकता है।

जिस तरह पहले और दूसरे चरण के मतदान के आंकड़ों को जारी करने में देरी व बदलाव को लेकर चुनाव आयोग पर प्रश्न उठा तो विपक्ष ने फॉर्म 17सी को लेकर विवाद खड़ा कर दिया। देश की शीर्ष अदालत में चुनाव आयोग ने अपना पक्ष रखा और विपक्षी पार्टयिों ने अपना पक्ष रखा, परंतु सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में कोई निर्णय नहीं दिया। बीते सप्ताह देश के नामी वकील और सांविधानिक विशेषज्ञ कपिल सिब्बल ने प्रेस सम्मेलन में सभी राजनैतिक दलों के प्रतिनिधियों से एक चेकलिस्ट जारी की।

सिब्बल ने हर राजनैतिक दल और उनके मतदान/मतगणना एजेंटों के लिए आगामी 4 जून को आम चुनाव की गिनती से पहले जारी की गई इस चेकलिस्ट के माध्यम से यह समझाया है कि उन्हें कब क्या देखना है। सिब्बल के अनुसार ‘बहुत से लोग कह रहे हैं कि इन मशीनों के साथ संभवत: छेड़छाड़ की गई है। इसलिए, हम यह सुनिश्चित करना चाहते हैं कि उनके साथ कोई छेड़छाड़ न हो, इससे ज्यादा कुछ नहीं।’ सिब्बल की इस चेकलिस्ट का वीडियो सोशल मीडिया पर काफी चर्चा में है। जिस तरह चुनाव आयोग इवीएम और वीवीपैट को लेकर पहले से ही विवादों में घिरा हुआ है उसे चुनाव में पारदर्शिता का न केवल दावा करना चाहिए बल्कि पारदर्शी दिखाई भी देना चाहिए।

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जैव विविधता बचाने की चुनौतियां https://indiatimesgroup.in/challenges-to-save-biodiversity/ https://indiatimesgroup.in/challenges-to-save-biodiversity/#respond Sun, 02 Jun 2024 04:48:17 +0000 https://indiatimesgroup.in/?p=4470

 -अमित बैजनाथ गर्ग
भारत जैव विविधता समृद्ध देश है। विश्व का 2.4 प्रतिशत क्षेत्रफल होने के बावजूद यह विश्व की 7.8 प्रतिशत सभी दर्ज प्रजातियों का पर्यावास स्थल है। विश्व के 34 जैव विविधता हॉटस्पॉट में से चार भारत में हैं। इसी प्रकार विश्व के 17 मेगा-डायवर्सिटी देशों में भारत शामिल है। इस प्रकार जैव विविधता न केवल ईको सिस्टम कार्य तंत्र के आधार का निर्माण करता है, बल्कि यह देश में आजीविका को भी आधार प्रदान करता है। ऐसे में भारत में जैव विविधता का संरक्षण अपरिहार्य हो जाता है। जैव विविधता के संरक्षण के लिए कई उपाय किए गए हैं जैसे कि 103 राष्ट्रीय उद्यानों की स्थापना, 510 वन्य जीव अभ्यारणों की स्थापना, 50 टाइगर रिजर्व, 18 बायोस्फीयर रिजर्व, 3 कंजर्वेशन रिजर्व तथा 2 सामुदायिक रिजर्व की स्थापना।

जैव विविधता के संरक्षण के लिए राष्ट्रीय जैव विविधता कार्रवाई योजना तैयार की गई है, जो कि वैश्विक जैव विविधता रणनीतिक योजना 2011-20 के अनुकूल है। इसे 2010 में कन्वेंशन आॅन बायोलॉजिकल डायवर्सिटी की बैठक में स्वीकार किया गया। भारत में जैव विविधता व संबंधित ज्ञान के संरक्षण के लिए वर्ष 2002 में जैव विविधता एक्ट तैयार किया गया। इस एक्ट के क्रियान्वयन के लिए त्रि-स्तरीय संस्थागत ढांचे का गठन किया गया है। एक्ट की धारा 8 के तहत सर्वोच्च स्तर पर वर्ष 2003 में राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरण का गठन किया गया, जिसका मुख्यालय चेन्नई में है। यह एक वैधानिक निकाय है, जिसकी मुख्य भूमिका विनियामक व परामर्श प्रकार की है।

राज्यों में राज्य जैव विविधता प्राधिकरण की भी स्थापना की गई है। स्थानीय स्तर पर जैव विविधता प्रबंध समितियों (बीएमसी) का गठन किया गया है। एनबीए के डेटा के अनुसार देश के 26 राज्यों ने राज्य जैव विविधता प्राधिकरण एवं जैव विविधता प्रबंध समितियों का गठन किया है। जहां वर्ष 2016 में बीएमसी की संख्या 41,180 थी, जो वर्ष 2018 में बढ़कर 74,575 हो गई। अकेले महाराष्ट्र एवं मध्य प्रदेश में ही 43,743 बीएमसी का गठन किया गया है। इन समितियों का उद्देश्य देश की जैव विविधता एवं संबंधित ज्ञान का संरक्षण, इसके सतत उपयोग में मदद करना तथा यह सुनिश्चित करना कि जैविक संसाधनों के उपयोग से जनित लाभों को उन सबसे उचित व समान रूप से साझा किया जाए, जो इसके संरक्षण, उपयोग एवं प्रबंधन में शामिल हैं।

जहां तक राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरण की बात है तो यह देश में जैव विविधता के संरक्षण के लिए दी गई भूमिका का बखूबी पालन कर रहा है। राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरण के अनुसार राष्ट्रीय जैव विविधता कार्रवाई योजना का क्रियान्वयन चुनौतीपूर्ण है। इसके सफल क्रियान्वयन में लोगों की भागीदारी की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। केरल के वायनाड जिले में एमएस स्वामीनाथन रिसर्च फाउंडेशन का सामुदायिक कृषि जैव विविधता केंद्र इस बात का बेहतरीन उदाहरण पेश करता है कि कैसे स्थानीय स्वशासन को सुदृढ़ करने से स्थानीय विकास योजनाओं में जैव विविधता संरक्षण को समन्वित किया जा सकता है। भारत के राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरण ने हाल ही में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम की मदद से ग्रामीणों की आजीविका में बेहतरी के नए मानदंड स्थापित किए हैं।

जैव विविधता पर कन्वेंशन के लक्ष्यों को हासिल करने के लिए व्यापक कानूनी और संस्थागत प्रणाली स्थापित करने में भारत काफी आगे रहा है। आनुवांशिक संसाधनों को लोगों के लिए उपलब्ध कराना और लाभ के निष्पक्ष, समान बंटवारे के कन्वेंशन के तीसरे उद्देश्य को जैव विविधता अधिनियम 2002 और नियम 2004 के तहत लागू किया जा रहा है। राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरण कन्वेंशन के प्रावधान लागू करने के अपने काम के लिए विश्व स्तर पर मान्यता प्राप्त है। इसकी पहुंच बढ़ाने और लाभ साझाकरण प्रावधानों के संचालन के लिए राष्ट्रीय स्तर पर लोगों के जैव विविधता रजिस्टर और जैव विविधता प्रबंधन समितियों का नेटवर्क तैयार किया जाता है।

2002 के अधिनियम के आधार पर बनी जैव विविधता प्रबंधन समितियां स्थानीय स्तर की वैधानिक निकाय हैं, जिनमें लोकतांत्रिक चयन प्रक्रिया के तहत कम से कम दो महिला सदस्यों की भागीदारी जरूरी होती है। ये समितियां शोधकर्ताओं, निजी कंपनियों, सरकारों जैसे प्रस्तावित उपयोगकर्ताओं की जैव संसाधनों तक पहुंच संभव बनाने और सहमति बनाने में मदद करती हैं। इससे जैव विविधता रजिस्टरों और जैविक संसाधनों के संरक्षण और टिकाऊ उपयोग के फैसलों के जरिए उपलब्ध संसाधनों का स्थायी उपयोग और संरक्षण सुनिश्चित किया जाता है। प्रोजेक्ट का शीर्षक है जैविक विविधता अधिनियम और नियमों के कार्यान्वयन को सुदृढ़ करने व उसकी पहुंच और लाभ साझाकरण प्रावधान पर ध्यान।

परियोजना का उद्देश्य जैविक संसाधनों तक बेहतर पहुंच बनाना, उनके आर्थिक मूल्य का आकलन करना और स्थानीय लोगों के बीच उनके लाभों को बेहतर ढंग से साझा करना है। इसे देश के 10 राज्यों आंध्र प्रदेश, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, सिक्किम, पश्चिम बंगाल, गोवा, कर्नाटक, ओडिशा, तेलंगाना और त्रिपुरा में चलाया जा रहा है। कम ही लोग जानते होंगे कि भारत में जैव विविधता के कई आकर्षक वैश्विक केंद्र हैं। उदाहरण के लिए सिक्किम में पक्षियों की 422 प्रजातियां और तितलियों की 697 प्रजातियां, फूलों के पौधों की साढ़े चार हजार प्रजातियां, पौधों की 362 प्रजातियां और सुंदर आर्किड फूलों की समृद्ध विविधता है।

जंतुओं और वनस्पतियों की अनगिनत प्रजातियां ही हिमालय को जैव विविधता का अनमोल भंडार बनाती हैं। यहां मौजूद हजारों छोटे.बड़े ग्लेशियरए बहुमूल्य जंगलए नदियां और झरने इसके लिए उपयुक्त जमीन तैयार करते हैं। हिमालय को कई जोन में बांटा गया हैए जिनमें मध्य हिमालयी क्षेत्र विशेष रूप से इस बायोडायवर्सिटी का घर है। मध्य हिमालय में बसे उत्तराखंड रा’य में ही वनस्पतियों की 7000 और जंतुओं की 500 महत्वपूर्ण प्रजातियां मौजूद हैं। आज हिमालयी क्षेत्र में जैव विविधता को कई खतरे भी हैं और इसकी कई वजहें हैंए जिनमें जलवायु परिवर्तन से लेकर जंगलों का कटनाए वहां बार.बार लगने वाली अनियंत्रित आगए जल धाराओं का सूखनाए खराब वन प्रबंधन और लोगों में जागरूकता की कमी शामिल है। इस वजह से कई प्रजातियों के सामने अस्तित्व का संकट है। ऐसी ही एक वनस्पति प्रजाति है आर्किडए जिसे बचाने के लिए उत्तराखंड में पिछले कुछ सालों से कोशिश हो रही है।

आर्किड पादप संसार की सबसे प्राचीन वनस्पतियों में हैए जो अपने खूबसूरत फूलों और पर्यावरण में अनमोल योगदान के लिए जानी जाती है। पूरी दुनिया में इसकी पच्चीस हजार से अधिक प्रजातियां हैं और हिमालय में यह 700 मीटर से करीब 3000 मीटर तक की ऊंचाई पर पाए जाते हैं। उत्तराखंड रा’य में आर्किड की लगभग 250 प्रजातियां पहचानी गई हैंए लेकिन ’यादातर अपना वजूद खोने की कगार पर हैं। जीव वैज्ञानिकों का कहना है कि कम से कम 5 या 6 प्रजातियां तो विलुप्त होने की कगार पर हैं। खुद जमीन या फिर बांज या तून जैसे पेड़ों पर उगने वाला आर्किड कई वनस्पतियों में परागण को संभव या सुगम बनाता है। च्यवनप्राश जैसे पौष्टिक और लोकप्रिय आयुर्वेदिक उत्पाद में आर्किड की कम से कम 4 प्रजातियों का इस्तेमाल होता हैए जो उच्च हिमालयी क्षेत्रों में पाई जाती हैं। पिछले दो साल से उत्तराखंड वन विभाग के शोधकर्ताओं ने कुमाऊं की गोरी घाटी और गढ़वाल मंडल के इलाकों में आर्किड की करीब 100 से अधिक प्रजातियों को संरक्षित किया है।

संयुक्त राष्ट ने 2021.30 को ईको सिस्टम रेस्टोरेशन का दशक घोषित किया है। इस लिहाज से ये विश्वव्यापी चिंताओं का भी समय हैए जब दुनिया के लोगों के सामने अपने उन कुदरती ईको सिस्टमों का पुनरुद्धार करने की चुनौती हैए जो विभिन्न कारणों से नष्ट हो रहे हैं। जाहिर है इस व्यापक चिंता से भारत के लोग भी अलग नहीं रह सकते। बहुत तेज गति वाली आर्थिक वृद्धि और विकास नियोजन में पर्यावरणीय चिंताओं को इंटीग्रेट न कर पाने की सीमाओं या कमजोरियों या दूरदर्शिता के अभाव के चलते भारत की जैव विविधता पर भी अनावश्यक और अतिरिक्त दबाव पड़ रहे हैं। ऐसे में संरक्षण की हर स्तर की पहल स्वागत योग्य है। खासकर ये ध्यान रखते हुए कि जैव संपदा और मनुष्य अस्तित्व के बीच सीधा और गहरा नाता है। जैव विविधता के इस केंद्र में भारत की वह करीब पचास फीसदी आबादी भी आती हैए जो गरीबी रेखा से नीचे बसर करती है और इनमें अनुसूचित जनजातियों के अधिकांश वही लोग शामिल हैंए जंगल जिनका घर है और जंगल से जिनका रिश्ता अटूट है। यही लोग जैव विविधता के नैसर्गिक पहरेदार हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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जलवायु संकट और भारत https://indiatimesgroup.in/climate-crisis-and-india/ https://indiatimesgroup.in/climate-crisis-and-india/#respond Sat, 01 Jun 2024 04:30:50 +0000 https://indiatimesgroup.in/?p=4428

अशोक शर्मा
वर्ष 2015 के पेरिस जलवायु सम्मेलन में यह तय हुआ था कि वैश्विक तापमान को औद्योगिक युग से पहले के तापमान से 1. 5 डिग्री सेल्सियस से अधिक नहीं बढ़ने दिया जायेगा।  लेकिन अब विशेषज्ञों का मानना है कि यदि वर्तमान नीतियों पर ही दुनिया चलती रही, तो इस लक्ष्य को पूरा करना असंभव है।  कुछ समय पहले संयुक्त राष्ट्र के महासचिव ने विकसित देशों और बड़ी कंपनियों की आलोचना करते हुए कहा था कि ये सभी वादे तो बड़े-बड़े करते हैं, पर उसे पूरा नहीं करते।  हालांकि भारत को अपनी विकास आकांक्षाओं को साकार करने के लिए बड़ी मात्रा में ऊर्जा की आवश्यकता है तथा उसके लिए जीवाश्म ईंधनों पर निर्भरता में बड़ी कटौती कर पाना कठिन है, फिर भी भारत ने स्वच्छ ऊर्जा के उत्पादन और उपभोग को बढ़ाने को अपनी नीतिगत प्राथमिकता बनाया है।

उल्लेखनीय है कि अमेरिका, चीन और यूरोप के अनेक विकसित देशों की तुलना में भारत में प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन बहुत कम है।  यह अमेरिका में 14. 44, चीन में 8. 85 और जर्मनी में 8. 16 मेट्रिक टन है, जबकि भारत में प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन केवल 1. 91 मेट्रिक टन है।  भारत ने 2030 तक 500 गीगावाट हरित ऊर्जा उत्पादित करने का लक्ष्य निर्धारित किया है।  ग्लासगो जलवायु सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि भारत 2070 तक अपने कार्बन उत्सर्जन को शून्य के स्तर पर लाने की दिशा में अग्रसर है।  कुछ समय पहले राष्ट्रीय हरित हाइड्रोजन मिशन की घोषणा की गयी है।

अंतरिम बजट में कृषि अवशिष्टों के ऊर्जा स्रोत में बदलने के लिए वित्तीय उपायों की घोषणा हुई है।  कुछ दिन पहले प्रधानमंत्री मोदी ने सूर्योदय योजना की घोषणा की है, जिसके अंतर्गत निम्न आय वर्ग के एक करोड़ घरों पर सोलर पैनल लगाये जायेंगे।  बजट में प्रावधान किया गया है कि इन घरों को मुफ्त बिजली भी मिलेगी और वे अपने यहां उत्पादित बिजली के अधिशेष को बिजली ग्रिडों को बेचकर कमाई भी कर सकेंगे।  पेरिस जलवायु सम्मेलन के बाद ही भारत और फ्रांस के नेतृत्व में अंतरराष्ट्रीय सोलर अलायंस का गठन हुआ था, जिसमें 125 से अधिक देश शामिल हो चुके हैं।  इस प्रकार भारत न केवल देश में वैकल्पिक और अक्षय ऊर्जा के क्षेत्र में प्रयासरत है, बल्कि वह वैश्विक सहभागिता को भी प्रोत्साहित कर रहा है।  दुबई जलवायु सम्मेलन में भारत ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय को जानकारी दी थी कि 2021-22 में भारत ने 13। 35 लाख करोड़ रुपये जलवायु प्रयासों पर खर्च किया है, जो सकल घरेलू उत्पादन का लगभग 5। 6 प्रतिशत हिस्सा है।  अगले सात वर्षों में इन कोशिशों पर 57 लाख करोड़ रुपये अतिरिक्त खर्च की उम्मीद है।

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विधि-सम्मत कार्रवाई होगी https://indiatimesgroup.in/legal-action-will-be-taken/ https://indiatimesgroup.in/legal-action-will-be-taken/#respond Fri, 31 May 2024 04:26:59 +0000 https://indiatimesgroup.in/?p=4392

झूठेऔर भ्रामक विज्ञापनों के जरिए आम आदमी को पल्रोभन देकर पैसा बनाने वाली कंपनियों को स्वप्रमाण-पत्र जारी करना होगा। यह दावा गलत हुआ तो हर्जाना चुकाना होगा। उनके खिलाफ विधि-सम्मत कार्रवाई भी होगी। रामदेव की कंपनी पतंजली के भ्रामक विज्ञापन मामले के आलोक में सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर अमल करने के लिए सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने यह कदम उठाया है। मंत्रालय द्वारा ऐसी प्रणाली और पोर्टल तैयार किया जा रहा है, जिसमें विज्ञापनदाता स्व-प्रमाणपत्र अपलोड करेगा। केंद्र सरकार के उपभोक्ता मामलों के मंत्रालय ने इस बाबत दिशा-निर्देश जारी कर दिए हैं जिनके तहत कंपनियों को अपने उत्पादों और वस्तुओं की बिक्री बढ़ाने की गरज से भ्रामक विज्ञापनों से बचने की सलाह दी गई है। भ्रामक विज्ञापनों को करने वाली चर्चित हस्तियों को भी इस झूठ में शामिल माना जाएगा।

यह व्यवस्था अगले महीने से लागू हो जाएगी। दावा गलत सिद्ध होने पर मुकदमा दायर होगा तथा मुआवजा भी देना होगा। हैरत नहीं होनी चाहिए कि अदालत के कड़े रुख के बाद संबंधित मंत्रालय और व्यवस्था चेत रही है। वरना तो अपने यहां गोरापन बढ़ाने वाली क्रीम तकरीबन 54 सालों से भ्रामक विज्ञापनों के सहारे ही बिकती रही हैं, जिनका सालाना रेवेन्यू 2400 करोड़ रुपये से ज्यादा का बताया जा रहा है।
ऐसे ही बच्चों की लंबाई बढ़ाने या हड्डियां मजबूत करने का दावा करने वाले तमाम प्रोडक्ट्स से बाजार अटे पड़े हैं। स्वास्थ्यवर्धक पेयों के मामले में भी कुछ ऐसा ही मंजर है, जिनका बाजार 7500 करोड़ रुपये से ज्यादा का बताया जा रहा है। ताजगी बढ़ाने और भीषण गरमी से राहत देने वाले सॉफ्ट ड्रिंक्स का बाजार 5700 करोड़ रुपये का है, जिनमें शक्कर की मात्रा घातक स्तर तक होने की चेतावनी जब-तब चिकित्सक देते रहते हैं। देश में हर ग्यारहवां शख्स डायबिटीज की चपेट में है।

मगर इन सब चीजों का प्रचार जोर-शोर से साल-दर-साल बढ़ता ही जा रहा है। मुनाफा कमाने वाली कंपनियों के खिलाफ कहीं कोई आवाज उठी भी तो तूती की तरह दब जाती है। इसके लिए स्पष्ट तौर पर सरकार और उसके मंत्रालय जिम्मेदार हैं जिन्हें जनता को भ्रामक प्रचार से बचाने के सख्त कदम उठाने थे। इस बात का फायदा उठाते हुए भ्रामक प्रचार और विज्ञापन के बल पर चांदी कूटने वाली कंपनियां बेखटके रहीं। अब हालांकि बहुत देर हो चुकी है। स्व-प्रमाणपत्र जैसी गाल बजाने वाली व्यवस्था देकर पीठ थपथपाने की बजाय गुणवत्ता मानक सख्ती से तय किए जाएं।

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वैश्विक ऊंचाई पर भारतीय खिलौना कारोबार https://indiatimesgroup.in/indian-toy-business-at-global-heights/ https://indiatimesgroup.in/indian-toy-business-at-global-heights/#respond Thu, 30 May 2024 04:33:05 +0000 https://indiatimesgroup.in/?p=4352

डॉ  जयंतीलाल
व्यापार एवं उद्योग मंत्रालय द्वारा हालिया प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक, भारत के खिलौना उद्योग ने वित्त वर्ष 2014-15 से 2022-23 के बीच तेज प्रगति की है।  इस अवधि में निर्यात में 239 प्रतिशत की भारी वृद्धि हुई, जबकि आयात में 52 प्रतिशत तक की कमी आयी।  इससे यह रेखांकित होता है कि ‘मेक इन इंडिया’ अभियान से भारत का खिलौना उद्योग वैश्विक ऊंचाई पर है।  इस अभियान ने चीन को झटका देते हुए खिलौना निर्माण को भारत के लिए फायदे का सौदा साबित कर दिया है।  चीन से खिलौनों की खरीदारी करने वाले कई देश अब भारत का रुख कर रहे हैं।  यह कोई छोटी बात नहीं हैं क्योंकि कोई एक दशक पहले खिलौनों की भारत से मुश्किल से ही किसी तरह की खरीद होती थी।  इस समय हैस्ब्रो, मैटल, स्पिन मास्टर और अर्ली लर्निंग सेंटर जैसे खिलौने के वैश्विक ब्रांड आपूर्ति के लिए भारत पर अधिक निर्भर हैं।  इटली की दिग्गज कंपनी ड्रीम प्लास्ट, माइक्रोप्लास्ट और इंकास आदि भी अपना ध्यान चीन से हटाकर भारत पर केंद्रित कर रही हैं।  पांच-छह वर्ष पहले तक भारत खिलौनों के लिए दूसरे देशों पर निर्भर था और 80 फीसदी से अधिक खिलौने चीन से आयात किये जाते थे।  विभिन्न सर्वेक्षणों में लगातार कहा जा रहा था कि चीन से आयातित दो-तिहाई खिलौने असुरक्षित थे।  उनमें सीसा, कैडमियम और बेरियम जैसे असुरक्षित तत्व पाये गये थे।

भारतीय खिलौना उद्योग की बहुत कम समय में हासिल ऐसी सफलता की कभी किसी ने कल्पना तक नहीं की थी।  भारत का खिलौना निर्यात पांच-छह वर्षों में तेजी से बढ़कर 2,600 करोड़ रुपये के स्तर पर पहुंच गया है।  भारत से अमेरिका, ब्रिटेन, यूरोपीय संघ, ऑस्ट्रेलिया, यूएइ, दक्षिण अफ्रीका सहित कई देशों को खिलौने निर्यात किये जा रहे हैं।  इस समय भारतीय खिलौना उद्योग का कारोबार करीब 1। 5 अरब डॉलर का है, जो वैश्विक बाजार हिस्सेदारी का 0। 5 फीसदी मात्र है, पर जिस तरह इस उद्योग को प्रोत्साहन दिया जा रहा है, उससे इसके इसी वर्ष तीन अरब डॉलर तक होने की संभावना है।  इस बढ़ोतरी के कई कारण हैं।  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बार-बार देश के लोगों से स्वदेशी भारतीय खिलौने खरीदने, घरेलू डिजाइनिंग सुदृढ़ बनाने, भारत को खिलौनों के लिए एक वैश्विक विनिर्माण हब बनाने की अपील की है।  बिक्री के लिए भारतीय मानक ब्यूरो (बीआइएस) की मंजूरी जरूरी होना, संरक्षणवाद, चीन-प्लस-वन रणनीति और मूल सीमा शुल्क बढ़ाकर 70 प्रतिशत करने जैसे उपायों से खिलौना उद्योग में तेजी आयी है।  बीआइएस ने घरेलू निर्माताओं को 1,200 से अधिक लाइसेंस और विदेशी निर्माताओं को 30 से अधिक लाइसेंस प्रदान किये हैं।

सरकार के प्रयासों से भारतीय खिलौना उद्योग के लिए अधिक अनुकूल विनिर्माण परितंत्र बनाने में मदद मिली है।  वर्ष 2014 से 2020 तक की अवधि में विनिर्माण इकाइयों की संख्या दोगुनी हो गयी, जबकि आयातित वस्तुओं पर निर्भरता 33 प्रतिशत से घटकर 12 प्रतिशत हो गयी।  वर्तमान में सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यम (एमएसएमइ) मंत्रालय 19 खिलौना उत्पादन केंद्रों की मदद कर रहा है तथा वस्त्र मंत्रालय 13 केंद्रों को डिजाइनिंग करने और जरूरी साधन मुहैया कराने में सहयोग कर रहा है।  स्वदेशी खिलौनों को बढ़ावा देने और नवाचार को प्रोत्साहित करने के लिए कई प्रचार पहल भी की गयी हैं, जिनमें इंडियन टॉय फेयर 2021, टॉयकैथॉन आदि शामिल हैं।  विदेश व्यापार महानिदेशालय ने घटिया स्तर के खिलौनों के आयात पर अंकुश लगाने के लिए प्रत्येक आयात खेप का नमूना परीक्षण अनिवार्य कर दिया है।  वर्ष 2014-15 के बाद से इस बार के अंतरिम बजट तक में लगातार सरकार ने खिलौना उद्योग के विकास के लिए प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से प्रोत्साहन और समर्थन देने की पहल की है।  खिलौना उद्योग को देश के 24 प्रमुख सेक्टरों में स्थान दिया गया है।

मेक इन इंडिया और आत्मनिर्भर भारत की नीतिगत पहलों के साथ-साथ घरेलू निर्माताओं के प्रयासों से भारतीय खिलौना उद्योग में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है।  पर अभी भी कई बाधाएं हैं।  भारतीय खिलौना उद्योग में विकास को बढ़ावा देने के लिए रणनीतिक कार्य योजना, संबंधित एजेंसियों के बीच उपयुक्त तालमेल व चीन की तरह देश में खिलौने के विशेष आर्थिक क्षेत्र बनाने की जरूरत है।  खिलौनों पर जीएसटी दर में कटौती की जानी चाहिए।  अधिकांश भारतीय खिलौने ई-कॉमर्स वेबसाइटों पर उपलब्ध होने चाहिए, ताकि घरेलू खिलौनों की बिक्री बढ़ सके।  पारंपरिक और यांत्रिक खिलौनों के लिए उत्पादन से जुड़ी प्रोत्साहन योजना शीघ्र शुरू की जाए।  सुगठित खिलौना प्रशिक्षण और डिजाइन संस्थान की स्थापना को मूर्त रूप देना होगा।  बैंकों से ऋण तथा वित्तीय सहायता संबंधी बाधाओं को दूर करना होगा।  हम उम्मीद करें कि सरकार देश को खिलौनों का वैश्विक हब बनाने और खिलौनों के वैश्विक बाजार में चीन को अधिक टक्कर देने की डगर पर आगे बढ़ेगी।  घरेलू बाजार के सस्ते और गुणवत्तापूर्ण खिलौनों से बच्चों के चेहरों पर मुस्कुराहट बढ़ेगी।  अधिक निर्यात से विदेशी मुद्रा की कमाई के साथ-साथ रोजगार के मौके भी तेजी से बढ़ेंगे।

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एफपीओ किसानों की उन्नति के पर्याय https://indiatimesgroup.in/fpo-is-synonymous-with-the-progress-of-farmers/ https://indiatimesgroup.in/fpo-is-synonymous-with-the-progress-of-farmers/#respond Wed, 29 May 2024 04:44:40 +0000 https://indiatimesgroup.in/?p=4324

संजीव मिश्र
उत्तम खेती मध्यम बान, निषिध चाकरी भीख निदान अर्थात खेती सबसे अच्छा काम है, व्यापार मध्यम है, नौकरी निषिद्ध है और भीख मांगना सबसे बुरा काम है। जनकवि घाघ ने जब यह दोहा लिखा होगा उस समय खेती-किसानी न सिर्फ  सम्मानजनक पेशा था, बल्कि किसान सबसे ज्यादा खुशहाल था। लेकिन आजादी के बाद कृषि क्षेत्र की उपेक्षा के चलते हालात इस कदर बिगड़ गए कि कृषि न केवल घाटे का सौदा बन गई, बल्कि किसान आत्महत्या करने को विवश हुआ। अब जलवायु परिवर्तन के चलते हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं।

अध्ययनों की मानें तो अकेले भारत में 2050 तक वष्रा-आधारित चावल की पैदावार 20 प्रतिशत और 2080 में 47 प्रतिशत तक की कमी की आशंका है। जलवायु परिवर्तन पर केंद्रित संयुक्त राष्ट्र के अंतरसरकारी पैनल की हालिया रिपोर्ट में कहा गया है कि अगले दो दशकों में वैिक तापमान में 1.5 डिग्री सेल्सियस या इससे भी अधिक की बढ़ोतरी होगी जिसका असर पानी की उपलब्धता से लेकर कृषि और खाद्य सुरक्षा पर पड़ेगा। भारत सरीखे देशों को तो ग्लोबल वार्मिंंग से उपजी परिस्थितियां खास परेशान करेंगी क्योंकि भूजल का 89 प्रतिशत हिस्सा कृषि क्षेत्र ही उपयोग करता है। इसलिए तापमान बढऩे से भारत जैसे देशों में खेती पर दूरगामी असर पड़ेंगे। भारत में दुनिया की 18 प्रतिशत आबादी रहती है, मगर कुल वैिक जल संसाधनों का 4 प्रतिशत ही उपलब्ध है। बावजूद इसके आजादी के बाद दशकों तक सरकारों द्वारा कोई ठोस प्रयास नहीं किया जाना समझ से परे है।

दरअसल, सरकारों के लिए किसान राजनीतिक मोहरा रहे जिन पर राजनीति तो खूब हुई लेकिन उनकी स्थिति सुधारने, आमदनी बढ़ाने, खेती को घाटे से फायदे का सौदा बनाने के प्रति गंभीर प्रयास नहीं किए गए। यही वजह है कि किसानों की स्थिति में सकारात्मक सुधार नहीं हुए। इस लिहाज से पिछला दशक भविष्य के प्रति आस्त करता है। 2014 में सरकार बनने के बाद से ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने किसानों की आय बढ़ाने के साथ टिकाऊ खेती की योजना बनाई। 2016 में सरकार ने कृषि आय को दोगुना करने के तरीकों का सुझाव देने के लिए गठित समिति की सिफारिशों पर तेजी से अमल किया जिसमें सबसे अहम है प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना। दुनिया की सबसे बड़ी डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर स्कीम माने जाने वाली इस योजना में देश के 11 करोड़ से अधिक किसानों को 2.61 लाख करोड़ रु पये से अधिक का लाभ मिला है।

सरकार किसानों को कई तरह की सब्सिडी भी दे रही है। र्फटलिाइजर सब्सिडी का बजट ही प्रति वर्ष 2 लाख करोड़ रु पये से अधिक है। सरकार टिकाऊ कृषि को बढ़ावा देने और वित्तीय अनुशासन बनाए रखने के प्रति भी सजग है। एक राष्ट्र-एक र्फटलिाइजर जैसी पहल, नीम और सल्फर कोटेड यूरिया इस दिशा में उठाया गया ठोस कदम है। सरकार अब पर ड्राप, मोर क्रॉप का लक्ष्य, ड्रिप और स्प्रिंकलर सिंचाई जैसी सूक्ष्म सिंचाई टेक्नोलॉजी को अमल लाकर जल उपयोग दक्षता को बढ़ावा दे रही है। इसके लिए एक सूक्ष्म सिंचाई कोष की स्थापना भी की गई है जिसके लिए राज्यों को 18,000 करोड़ से अधिक की केंद्रीय सहायता जारी की गई है। सरकार कृषि में व्यापक बिजली खपत के लिए सौर ऊर्जा का विकल्प भी दे रही है।

समय अब परंपरागत खेती की जगह अत्याधुनिक संसाधनों से खेती का है। खुद प्रधानमंत्री भी अक्सर इनोवेटर्स और रिसर्चर्स से आग्रह करते हैं कि प्रति इंच जमीन पर ‘अधिकाधिक फसल’ के बारे में सोचें। कृषि आय बढ़ाने की दिशा में सरकार की प्रतिबद्धता को बजट से आंका जा सकता है। कृषि और संबद्ध गतिविधियों के बजट को 4.35 गुना बढ़ाकर 2013-14 के 30,223 करोड़ से 2023-24 में 1.3 लाख करोड़ रु पये से अधिक किया गया है। सरकार भी प्रत्येक किसान को किसी न किसी रूप में औसतन 50,000 रु पये प्रदान कर रही है।

इन सबके सकारात्मक परिणाम दिखने लगे हैं। एनएसएसओ के हालिया सिचुएशन असेसमेंट सर्वे (2018-19) के अनुसार, मासिक कृषि घरेलू आय 2012-13 में 6,426 से बढक़र 2018-19 में 10,218 रु पये हो गई। दरअसल, मोदी सरकार ने ‘सहकार से समृद्धि’ के स्वप्न को साकार करने हेतु एफपीओ के गठन का निर्णय लिया था। आज एफपीओ किसानों की उन्नति के पर्याय बन गए हैं। अकेले समुन्नति संस्था 6500 से अधिक एफपीओ के साथ मिल कर 8 लाख से अधिक किसानों के जीवन में बदलाव लाई है। समुन्नति के माध्यम से सकल लेन देन का आंकड़ा 22,000 करोड़ से ऊपर पहुंच गया है। सरकार को इन संस्थाओं को प्रोत्साहित करना चाहिए ताकि किसानों की आमदनी बढऩे के साथ-साथ खेती फायदे का सौदा साबित हो सके।

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अकेले महिलाओं को दोषी नहीं ठहराया जा सकता https://indiatimesgroup.in/women-alone-cannot-be-blamed/ https://indiatimesgroup.in/women-alone-cannot-be-blamed/#respond Mon, 27 May 2024 04:40:38 +0000 https://indiatimesgroup.in/?p=4273

अमेरिका की प्रजनन दर में 2023 के दौरान गिरावट दर्ज की गयी है। यूएस सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन की ताजा रपट के अनुसार आस्ट्रेलिया में भी समान पैटर्न नजर आ रहा है। कह रहे हैं कि कोविड-19 महामारी के चरम के वक्त प्रजजन दर में अस्थाई वृद्धि देखी गयी थी। जिसे छोड़ कर अमेरिकी प्रजनन दर लगातार गिर रही है। इससे कम प्रजनन दर के मामले में जापान, दक्षिण कोरिया व इटली हैं। अमेरिका व आस्ट्रेलिया में इस वक्त प्रजनन दर 1.6 है। जबकि दक्षिण कोरिया में 0.68 रह गयी है।

इन देशों में जितने बच्चे जन्म रहे हैं, उससे ज्यादा मौतें हो रही हैं। असल सवाल महिलाओं के कम बच्चे पैदा करने पर जा अटकता है। यूं भी आस्ट्रेलियाई महिलाएं दुनिया में सबसे शिक्षित हैं। पढ़ाई को काफी वक्त देने के बाद वे करियर बनाने में जुट जाती हैं। बच्चे पालना महंगा तथा समय लेने वाली जिम्मेदारी है।

महिलाएं ही नहीं पुरुष भी स्थाई नौकरी व आर्थिक सुरक्षा के प्रति जागरूक हो रहे हैं। अमीर देश ही नहीं, दुनिया भर के 204 देशों और क्षेत्रों में से 155 यानी 76त्न में 2050 तक प्रजनन दर जनसंख्या प्रतिस्थापन स्तर से नीचे पहुंच जाएगी। जनसंख्या को स्थिर बनाये रखने के लिए प्रति महिला 2.1 प्रजनन दर की आवश्यकता है। चूंकि अपने यहां इस वक्त उर्वर  यानी 18-35 की उम्र वालों की संख्या दुनिया में सबसे अधिक तकरीबन साठ करोड़ बतायी जा रही है।

विश्लेषकों का अनुमान है कि जनसंख्या 2064 में लगभ 9.7 अरब पहुंच सकती है। मगर 2100 में यह सिकुड़ कर 8.8 अरब पर थम सकती है। प्रजनन दर में आने वाली गिरावट के लिए अकेले महिलाओं को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। यह सच है कि बच्चों के लालन-पालन में लगने वाले समय, ऊर्जा व धन को लेकर मानदंड बलदते जा रहे हैं।

दूसरे देर से युवावस्था की ढलाने में हो रही शादियां व प्रजनन क्षमता में होने वाली गिरावट/दिक्कतों की अनदेखी नहीं की जा सकती। बदलती जीवन-चर्या, आर्थिक दबाव, करियर की बढ़ती मांगे, प्रतिस्पर्धा आदि ने युवाओं का जेहनी सुकून छीना है। बच्चों की देखभाल की उचित व्यवस्था का अभाव भी युवाओं को परिवार बढ़ाने से विमुख करता है। यह जटिल समस्या नहीं है, इसे लाइफ स्टाइल से जोड़ कर देखा जाना चाहिए और इसे सुधारने के प्रति सभी को आगे बढऩा चाहिए।

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